बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

किरातिन

किस किरातिन ने लगा दी आग ,
धू-धू जल उठा वन !

रवि-किरण जिसका सरस तल छू न पाई
युगों तक पोषित धरित्री ने किया जिनको लगन से !
पार करते उन सघन हरियालियों को प्रखर सूरज किरण अपनी तीव्रता खो ,
हो उठे मृदु श्याम वर्णी ,
वही वन की नेह भीगी धरा , ओढे है अँगारे !
जल रही है घास दूर्वायें कि जिनको
तुहिन कण ले सींचते संध्या सकारे
.भस्म हो हो कर हवाओं में समाये !
जल गये हैं तितलियों के पंख , चक्कर काटते भयभीत, खग,
उन बिरछ डालों पर सजा था नीड़,करते रोर
गिरते देखते नव शावकों की देह जलते घोंसलों से !

और सर्पिल धूम लहराता गगन तक !
वृक्ष से छुट-छुट गिरीं चट्-चट् लतायें ,
धूम के पर्वत उठे ,
लपटें लपेटे ,शाख तरु की ,फूल फल पत्ते निगलती !
भुन रहे जीवित विकल चीत्कार करते जीव ,-
जायेंगे कहाँ, वे इस लपट से उस लपट तक !
यहाँ तो इस ओर से उस ओर तक नर्तत शिखायें वहि की
लपलप अरुण जिहृवा पसारे ,कर रहीं पीछा निरंतर !
और हँसती है किरातिन ,
जल रहा वन खिलखिलाती है
किरातिन !

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